मोतीहारी में गांधीजी कार्यकर्ताओं को निर्देश दे रहे थे- 'आज अवंतिका आने वाली होगी, उसे स्टेशन से लिवा लाना और कमरे में ठहरा देना।' एक ने कहा-'बापू उसे इन साधारण कमरों में चटाई पर सोना क्यों पसंद होगा? वह तो पहले दरजे में सफर की आदी है'। बापू ने कहा-'वह जनसेवक के तौर पर आ रही है। जनसेवक के अनुरूप अगर तीसरे दरजे में आई तो उसे यहीं रखूंगा, वरना वापस भेज दूंगा।' 'पर बापू ....' दूसरे ने संकोच में कहा-'उनके पास पैसा है, वह भी उन्हीं का कमाया हुआ।  
उसे खर्च करने में क्या बुराई है? खर्च का मतलब अपव्यय तो नहीं।' स्वयं सेवक गांधीजी के सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी के साथ आवंतिका बाई को लेने स्टेशन गए। देवदास ही अकेले उन्हें पहचानते थे। देवदास ने उम्मीद के मुताबिक उन्हें दूसरे दरजे के डिब्बों में खोजा, लेकिन कहीं पता न चला। तब वे निराश होकर वापस आ गए और खबर दी कि अवंतिका बाई इस गाड़ी से नहीं आईं। यह सुनकर सब लोग हंसने लगे। दरअसल अवंतिका अपने पति के साथ पहले ही एक साधारण कमरे में ठहर चुकी थीं। यात्रा उन्होंने तीसरे दर्जे में की थी और बापू की कसौटी पर खुद को खरा साबित किया।  
शाम को गांधीजी उन्हें समझाने लगे- किस तरह बड़हखा गांव जाकर काम शुरू करना करना है। इस पर कस्तूरबा ने कहा- 'ये आज ही आए हैं और कल दीवाली है। दीवाली मनाकर जाएं।' 'नहीं ऐसा नहीं होगा, इन्हें कल सुबह ही निकलना होगा।' गांधीजी का स्वर तेज था। ''एक दिन में क्या हो जाएगा?' 'जनसेवक को निठल्ले नहीं बैठना है।' तभी अवंतिका बोलीं- 'बापू, आप मुझे यह बताएं कि बड़हखा के कायाकल्प के लिए मुझे क्या करना है।' गांव की समस्याओं का तो वहीं जाकर अध्ययन करना होगा और गांव वालों का विश्वास जीतना होगा।' 'और विश्वास जीतने के लिए क्या करना होगा?' 'सादगी और निष्ठा का पालन ही तुम्हें विश्वस्त बनाएगा। जनसेवक की यही संपत्ति है। यह सुनकर आवंतिका बाई तैयारी में जुट गईं।